चढ़े न दूजो रंग

मेरा
मन करता है
मैं
तुम्हारी
एक तस्वीर बनाऊं
काली-
बहुत काली
काजल सी काली
सियाही से
कितनी
अद्भुत लगोगी तुम
तब
तुम्हारे चेहरे से
बदलते रंग
मेरे सिवा, कौन बूझ पाएगा
आर्ट गैलरी
के
तन्हा कोने में लगी
इस तस्वीर को
कोई नहीं देखेगा
केवल
मैं पढूंगा
तुम्हारे होठों पर
लपक आई-दुष्ट मुस्कान को
केवल मैं
सुनूंगा रातों में गूंजते
मूक राग को- अनूठी तान को
और बज उठेंगे
उसके साथ
मेरी
मन वीणा के तार
मैं रखूंगा
इस तस्वीर को सहेज संवार
बरसात में
और तस्वीरों के रंग जब
धुल जाएंगे
सूर की काली कमर सी
तुम्हारी तस्वीर से तब फूटेगा
इन्द्रघनुष सा
सतरंगी दरिया
पर मैं-क्या करूं?
वह पवित्र काला रंग
कहां से लाऊं
जो
तुमने
आंसुओं में काजल
घोलकर
बनाया था, मेरी खातिर
और मैं खड़ा रहा
काजल से सूनी आंखों का
अबोध
सौन्दर्य देखता
काजली रंग
जाने कहां बह गया
मैं
बस खड़ा रह गया।
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